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वै॒श्वा॒न॒राय॑ धि॒षणा॑मृता॒वृधे॑ घृ॒तं न पू॒तम॒ग्नये॑ जनामसि। द्वि॒ता होता॑रं॒ मनु॑षश्च वा॒घतो॑ धि॒या रथं॒ न कुलि॑शः॒ समृ॑ण्वति॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vaiśvānarāya dhiṣaṇām ṛtāvṛdhe ghṛtaṁ na pūtam agnaye janāmasi | dvitā hotāram manuṣaś ca vāghato dhiyā rathaṁ na kuliśaḥ sam ṛṇvati ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वै॒श्वा॒न॒राय॑। धि॒षणा॑म्। ऋ॒त॒ऽवृधे॑। घृ॒तम्। न। पू॒तम्। अ॒ग्नये॑। ज॒ना॒म॒सि॒। द्वि॒ता। होता॑रम्। मनु॑षः। च॒। वा॒घतः॑। धि॒या। रथ॑म्। न। कुलि॑शः। सम्। ऋ॒ण्व॒ति॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:2» मन्त्र:1 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पन्द्रह ऋचावाले दूसरे सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग (ऋतावृधे) सत्य के बढ़ानेवाले (वैश्वानराय) समस्त मनुष्यों में प्रकाशमान (अग्नये) अग्नि के लिये (पूतम्) पवित्र (घृतम्) घृत के (न) समान (धिषणाम्) प्रगल्भ बुद्धि को (जनामसि) उत्पन्न करें (वाघतः) मेधावी जन (धिया) प्रज्ञा वा कर्म से (कुलिशः) वज्र (रथम्) रथ को (न) जैसे वैसे (समृण्वति) अच्छे प्रकार प्राप्त होता (द्विता) दो के होने (होतारम्) होमकर्ता मनुष्य (च) और (मनुषः) मनुष्यों को सम्यक् प्राप्त होता वैसे ही तुम भी आचरण करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जैसे ऋत्विग् जन घृत आदि हवि को अच्छे प्रकार शोध कर अग्नि में हवन करने से अग्नि की वृद्धि करते हैं, वैसे अध्यापक और उपदेशक जन शिष्यों तथा श्रोताओं की बुद्धियों को बढ़ावें, जैसे कुल्हाड़ी आदि साधनों से काष्ठ छील कर यान बनाये जाते हैं, वैसे उत्तम शिक्षा और ताड़नाओं से शिष्य लोग विद्या से संपन्न किये जावें, जैसे अध्यापक और अध्येता प्रीति से वर्त्तमान हैं, वैसे सबको वर्त्तमान करना चाहिये ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्गुणानाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यथा वयमृतावृधे वैश्वानरायाग्नये पूतं घृतं न धिषणां जनामसि वाघतो धिया कुलिशो रथं न समृण्वति द्विता होतारं मनुषश्च समृण्वति तथा यूयमप्याचरत ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वैश्वानराय) विश्वेषु नरेषु राजमानाय (धिषणाम्) प्रगल्भां धियम् (ऋतावृधे) सत्यस्य वर्द्धकाय (घृतम्) आज्यम् (न) इव (पूतम्) पवित्रम् (अग्नये) पावकाय (जनामसि) जनयेम। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम्। (द्विता) द्वयोर्भावः (होतारम्) दातारम् (मनुषः) मनुष्याः (च) (वाघतः) मेधावी। वाघत इति मेधाविना०। निघं०३। १७। (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (रथम्) यानम् (न) इव (कुलिशः) वज्रम्। कुलिश इति वज्रनाम। निघं०३। १९। (सम्) (ऋण्वति) प्राप्नोति। ऋण्वतीति गतिकर्मा। निघं०२। १४ ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथर्त्विजो घृतादिकं हविः संशोध्याग्नौ हवनेन पावकं वर्द्धयन्ति तथाध्यापकोपदेशकाः शिष्याणां श्रोतॄणां च प्रज्ञा वर्धयेयुर्यथा कुठारादिभिः साधनैर्यानानि रच्यन्ते तथा सुशिक्षाताडनैः शिष्या विद्यया संसृज्येरन्। यथाऽध्यापकाऽध्येतारौ प्रीत्या वर्त्तेते तथा सर्वैर्वर्त्तितव्यम् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात विद्वान व अग्नीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसे ऋत्विज घृत इत्यादी हवनीय द्रव्ये चांगल्या प्रकारे संशोधित करून अग्नीत हवन करून अग्नी प्रज्वलित करतात तसे अध्यापक व उपदेशकांनी शिष्य व श्रोते यांची बुद्धी वाढवावी. जसे कुऱ्हाड इत्यादी साधनांनी लाकूड तासून वाहने बनविली जातात तसे शिक्षणाने व शिक्षा करून शिष्य विद्येने संपन्न केले जातात. जसे गुरू व शिष्य प्रेमाने वागतात तसे सर्वांनी वागावे. ॥ १ ॥